Business Idea: भारतीय कृषि क्षेत्र में नवाचार और विकास की नई लहरें आ रही हैं। किसानों की प्रमुख चाहत होती है खेती से अधिकतम मुनाफा कमाना। ऐसे में, पारंपरिक धान और गेहूं की खेती के बजाय, विभिन्न फसलों की खेती अपनाने में बड़ी संभावनाएं हैं। इसी कड़ी में, तिल की खेती (सेसमी फार्मिंग) एक आकर्षक और लाभकारी विकल्प के रूप में उभर रही है।
भारत में खाद्य तेलों के बड़े पैमाने पर आयात के बावजूद, हालिया वर्षों में तिलहन मिशन प्रोग्राम ने तिलहन उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि की है। तिल न केवल राजस्थान में खरीफ सीजन की मुख्य तिलहनी फसल है, बल्कि यह पूरे राज्य में लगभग 4 से 5 लाख हेक्टेयर में उगाई जाती है।
तिल की खेती के लिए विभिन्न किस्में
तिल की खेती के लिए, किसानों को विभिन्न उन्नत किस्मों जैसे कि आर.टी. 46, आर.टी. 125, आर.टी. 127, आर.टी. 346, और आर.टी. 351 का चयन करना चाहिए। ये किस्में 78 से 85 दिनों के भीतर पक जाती हैं और प्रति हेक्टेयर 700 से 800 किलोग्राम बीज का उत्पादन कर सकती हैं। इनमें तेल की मात्रा 43 से 52 प्रतिशत तक होती है, जो इसे और भी लाभकारी बनाती है।
भारतीय कृषि क्षेत्र में नवीनता और उत्कृष्टता की ओर बढ़ते कदमों के बीच, तिल की खेती ने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। यहाँ हम आपको तिल की खेती की तैयारी और बीजोपचार की विस्तृत जानकारी दे रहे हैं, जिससे आपकी फसल समृद्ध और लाभकारी बन सके।
खेती की तैयारी
तिल की खेती के लिए खेत की सही तैयारी अत्यंत महत्वपूर्ण है। खरपतवार से भरी जमीन के लिए गर्मियों में एक गहरी जुताई अनिवार्य है। मानसून के पहले झटके के साथ, खेत को 1-2 बार जुताई करके उपयुक्त बनाया जाता है। हर 3 वर्ष में, 20-25 टन गोबर की खाद का प्रति हेक्टेयर उपयोग अत्यधिक लाभकारी होता है।
बीजों की बुवाई और उपचार
तिल की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 2 से 2.5 किलोग्राम बीज का उपयोग करें। बीज की बुवाई मानसून की पहली बारिश के बाद, जुलाई के पहले सप्ताह में 30-45 सेमी की दूरी पर की जानी चाहिए। बीजों को बुवाई से पहले 1 ग्राम कार्बेण्डाजिम और 2 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कैप्टान या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी से प्रति किलोग्राम बीज के अनुपात में उपचारित करना चाहिए। इसके अलावा, जीवाणु रोग से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल में 2 घंटे तक भिगोकर उपचारित करें। तिल की फसल में कीटों से बचाव के लिए इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू.यू.एस का 7.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के अनुपात में उपचारित करना भी महत्वपूर्ण है।
सिंचाई और निराई-गुड़ाई
आईसीआरएस के अनुसार, फसल की वृद्धि और फली बनने के समय में नमी की कमी होने पर सिंचाई महत्वपूर्ण है। बुवाई के 20 दिन बाद खेत की पहली निराई-गुड़ाई अत्यंत आवश्यक होती है। यदि निराई-गुड़ाई संभव न हो, तो एलाक्लोर का उपयोग करने की सलाह दी जाती है।
जैविक उपाय और रोग प्रबंधन
तिल की खेती में जैविक उपायों का महत्व बढ़ रहा है। बुवाई से पहले प्रति हेक्टेयर 8 टन सड़ी हुई खाद और नीम की खली का उपयोग करने की सिफारिश की जाती है। बीजों को ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित करने के बाद बुवाई करनी चाहिए। तिल की फसल पर विभिन्न कीट और रोगों का प्रकोप हो सकता है, जैसे कि गॉल मक्खी, सैन्य कीट, हॉकमॉथ, फड़का, झुलसा, पत्ती और फलीछेदक आदि। इनसे बचाव के लिए नीम आधारित कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए।
कटाई और भंडारण
फसल की पत्तियों के पीले पड़ने और नीचे की फलियों के पकने पर कटाई की जानी चाहिए। कटाई के बाद, फसल को खेत या खलिहान में सही तरीके से रखना चाहिए। तिल की खेती से जुड़े इन उपायों का सही तरीके से पालन करके किसान अपनी फसल की उत्पादकता और लाभकारिता को बढ़ा सकते हैं। यह न सिर्फ उनके आर्थिक लाभ के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि सतत और पर्यावरण के अनुकूल खेती की दिशा में एक कदम भी है।