26 अगस्त का दिन विश्वभर के लिए एक महान दिन है चूँकि आज ही सेवा को अपना धर्म बनाने वाली मदर टेरेसा का जन्म हुआ था। मदर टेरेसा का नाम और जीवन विश्वभर के लोगो के लिए एक प्रेरणा रहा है। उनको बचपन में ही दूसरो की सेवा करने की प्रेरणा मिली और वे भारत आकर इस काम में संलग्न हुई। बीसवीं सदी में हुई महान हस्तियों में मोटर टेरेसा का नाम हमेशा आता रहेगा।
Mother Teresa ने अपने असली नाम को त्याग दिया चूँकि वो अपने नाम से भी संत थेरेस ऑस्ट्रेलिया एवं टेरेसा ऑफ अविला को सम्मानित करना चाहती थी। आज का दिन मदर टेरेसा के जीवन को जानने और उनके विचारो पर चिंतन का है।
जन्म और शुरूआती जीवन
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 के दिन मैसेडोनिया (अब मैसेडोनिया रिपब्लिक) की राजधानी स्कोप्जे में हुआ था। उनके बचपन का नाम अग्नेस गोंझा बोयाजीजू था। इनके पिता का नाम ड्रेनफाइल बोजाक्सी हु था। इसके अलावा परिवार में माँ और एक-एक भाई बहन भी थे। Mother Teresa की माँ दूसरो को काफी दान भी देती रहती थी जिनसे टेरेसा को मदद देने की प्रेरणा मिली। 8 वर्ष की कम उम्र में ही टेरेसा के व्यवसाई पिता का निधन हो गया।
शिक्षा
उनकी विद्यालयी शिक्षा एक निजी कैथोलिक स्कूल में अल्बानिया भाषा में हुई थी और फिर वे एक सरकारी स्कूल में पढ़ने चली गई। उनको गाने और संगीत बजाने का भी काफी शौक था। मात्र 18 वर्ष की आयु में टेरेसा सिस्टर ऑफ़ लैराटो से जुड़ गई और आयरलैंड जाकर अंग्रेजी भी सीखी। कैथोलिक चर्च से जुड़ने के बाद मिशनरियों की कथाओ को सुनने के बाद खुद को अन्य लोगो के लिए समर्पित कर दिया।
उन्होंने इस समय सेवा करने के लिए बहुत सी यात्राएँ भी की। 1928 में आयरलैंड के कैथोलिक संस्थान में 6 माह तक प्रशिक्षित होने के बाद अगले ही वर्ष भारत के कोलकाता में आकर बसने का निर्णय लिया।
जीवन का अहम दौर
मदर टेरेसा का परिवार दूसरे वर्ल्ड वार के समय में काफी तंजी देख रहा था लेकिन उनकी माँ काफी मजबूत महिला थी। 1925 में वे फादर फ़्रांजो जाम्ब्रेकोविक नामक पादरी से मिली। यहाँ उनका जीवन और अधिक सादगी की ओर मुड़ा। स्नातक करने के बाद उन्होंने नन बनने की सोची। नन का काम जीवनभर कमजोर एवं गरीबो की मदद करना है।
भारत आकर ‘मदर टेरेसा’ बनी
टेरेसा पानी के जहाज के माध्यम से भारत पहुँची थी और यहाँ पर उन्होंने नन बनने का प्रशिक्षण भी लिया। 1929 में प्रशिक्षण शुरू करके लोगो की सहायता करना सीखा। फिर प्रशिक्षण का धार्मिक चरण शुरू हुआ। नन बनने के बाद नए नाम के विकल्प के तौर ‘टेरेसा’ नाम चुना। ऐसे वे सिस्टर टेरेसा कहलाने लगी।
स्कूल में टीचिंग करना
1931 में टेरेसा ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और उनकी संस्था ने उनको दार्जलिंग के कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने के लिए भेज दिया। यहाँ वे अंकगणित, भूगोल एवं धर्म पढ़ाती थी। वे अंग्रेजी एवं हिंदी नहीं जानती थी तो उन्होंने दोनों भाषाओ को सीखना शुरू किया।
टीचिंग छोड़ सेवा शुरू की
मदर टेरेसा के अनुसार उन्होंने जीसस के आदेश पर टीचिंग छोड़कर कोलकाता की झोपड़ियों में गरीबो की सेवा शुरू की। स्कूल छोड़ने के बाद नीली पट्टी वाली दो साड़ियों से सेवा की शुरुआत कर दी। पैसे न होने की वजह से उनको भीख भी मांगनी पड़ी। किन्तु बाद में मदद मिलने से वे अपना काम करने लगी और 1950 में उनको वैटिकन के मिशनरीज ऑफ चैरिटी समूह से भी स्वीकृति मिली। 1980 में उनको ‘भारत रत्न’ पुरस्कार भी मिला।
मेटर टेरेसा का देहांत
जीवन के अंतिम दिनों में वे काफी बीमार थी और उनके फेफड़ो एवं गुर्दो ने काम करना बंद कर दिया था। 5 सितम्बर 1997 के दिन 87 साल की आयु में मदर टेरेसा ने कोलकाता में अंतिम साँस ली।