Announcement of successor of Shankaracharya Swaroopanand Saraswati today, two disciples can get the throne

Shankaracharya Swaroopanand Saraswati: रविवार के दिन ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ और शारदा पीठ द्वारका के शंकराचार्य के पद पर आसीन स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती (Swami Swaroopanand Saraswati) का 99 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया। स्वामीजी ने नरसिंहपुर के झोतेश्वर में परमहंसी गंगा आश्रम ने दिन के 3 बजे प्राण त्याग दिए। उनका स्वस्थ लम्बे समय से अस्थिर चल रहा था। सोमवार को अंतिम दर्शन के बाद स्वरूपानंदजी को परमहंसी गंगा आश्रम में समाधी दी जाएगी।

Shankaracharya Swaroopanand Saraswati

शीर्ष कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) उनके दीक्षित शिष्य रहे है। इसके अलावा उन्हें देश की आजादी के संघर्ष में जेल जाने और राम मंदिर निर्माण के लिए लम्बी कानूनी लड़ाई के लिए भी जाना जाता है।

सीएम योगी ने ट्विटर पर दुःख जताया

उनके देहांत की खबर सुनकर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए ट्वीट किया। उन्होंने पोस्ट किया – ‘श्री द्वारका-शारदा पीठ एवं ज्योतिर्मठ पीठ के जगतगुरु शंकराचार्य श्रद्धेय स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का ब्रह्मलीन होना संत समाज की अपूरणीय क्षति है। प्रभु श्री राम दिवंगत पुण्यात्मा को अपने परधाम में स्थान व शोकाकुल हिन्दू समाज को यह दुःख सहने की शक्ति दें। ॐ शान्ति।’

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नौ साल में गृह त्याग, धर्मयात्रा शुरू की

2 सितम्बर 1924 में मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव ने जन्मे स्वामी सरस्वतीजी का नाम ‘पोथीराम उपाध्याय’ था। शंकराचार्य ने एक साधु होने के साथ स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत छोड़ो आंदोलन में जेल यात्रा करने के कारण उन्हें ‘क्रांतिकारी साधु’ के नाम से भी जाना जाता था। कांग्रेस नेताओं से नजदीकी के कारण भी वे चर्चा में रहते थे।

दण्ड सन्यास की दीक्षा ली थी

साल 1950 में शंकराचार्य सरस्वतीजी ने शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से दंड संन्यास की दीक्षा ली थी। इसके बाद से ही उनको ‘स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती’ के नाम से कहलाने लगे थे। वे करपात्री महाराज के राजनीतिक दल ‘राम राज्य परिषद’ के अध्यक्ष भी रहे है। साल 1981 में उन्हें “शंकराचार्य” की पदवी मिली।

स्वामी सुबुधानन्द या अविमुक्तेश्वर सम्हालेंगे उत्तराधिकार

शंकराचार्यजी के द्वारा दो शिष्यों को दण्डी स्वामी परंपरा के अनुसार शिक्षा दी थी। ये दोनों, बड़े शिष्य सदानंद सरस्वती एवं छोटे स्वामी अविमुक्तेश्वर सरस्वती है। शंकराचार्य के सचिव स्वामी सुबुधानन्द उनके उत्तराधिकारी दौड़ में माने जा रहे है। स्वामी अविमुक्तेश्वर वाराणसी ने रहते हुए श्री विद्या मठ के साथ ज्योतिर्मठ बद्रिका आश्रम को सम्हालते है। और स्वामी सदानंद शंकराचार्य की ओर से द्वारिका शारदा पीठ के प्रमुख है। स्वामी सुबुधानन्द हमेशा शंकाचार्यजी के साथ रहकर उनका कामकाज देखते थे।

अपूर्व शांकर मठ परम्परा क्या है?

आदि शंकराचार्य ने सनातन-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए देशभर के अलग स्थानों पर 4 मठों (पीठों) को स्थापित किया। इनके मठाध्यक्ष/ महंत/मठाधीश/पीठासीन को ‘शंकराचार्य’ की उपाधि दी। इसके बाद से ही ये लोग आदि शंकराचार्य के प्रतिनिधि कहलाते है। इनके पास प्रतीक चिन्ह, दंड, चंवर एवं सिंहासन रखते है। ये अपने जीवन काल में योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी बना देते है। शांकर मठ से पहले ऐसी किसी परंपरा का वर्णन नहीं पाया जाता है।

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